सवालो का अभाव!

आखिर क्यूं, आज के समय में विरोध करने पर इतने विरोध का सामना करना पड़ता है?
क्या हम एक समाज के तौर पर इतने कमज़ोर है कि हमने सबसे आलोचना का अधिकार छीन लिया है? आखिर क्यों हम मौजूद सरकार से सवाल करने से इतना कतरा रहे है, क्या यह लोकतंत्र की मौत का प्रारंभ नही है?
सवाल यदि पिछले 3 सालों के काम पर है तो क्यों हम उसे 60 साल के काम पर ले जाते है, और यदि ले भी गए तो क्या मौजूदा सरकार सवाल से बच जाएगी? क्या किसानों की मौजूदा स्तिथि के लिए वर्तमान सरकार तनिक भी ज़िम्मेदार नही है?
आखिर सवालो की दुनिया में इतना अंधेरा क्यों है, हर युग में विद्वान की उपस्थिति को उनसे बहस करने वाले ने सार्थक बनाया है। महाभारत में कृष्ण की मौजूदगी अर्जुन ने सार्थक की।

और आज के समय में सवाल का जवाब आपको पाकिस्तानी होने, एन्टी नेशनल होने के टैग से सुसज्जित कर देता है, और शायद यह दुखद है।

किसी से सवाल करना और किसी का विरोध करना अलग बातें है, आज के समय में क्यों इनके बीच की रेखा समाप्त हो गयी है?

देश की मौजूदा हालत बुरी है, और इसमें सरकार से ज़्यादा हम ज़िम्मेदार है!
क्या एक प्रधान मंत्री पूरे देश की हज़ार वर्षो से चली आ रही सवाल करने की परंपरा से बड़ा है, शायद नही।
और यदि है तो चिंताजनक है!

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